वर्तमान समय में जिला अम्बाला के मुलाना-बराडा क्षेत्र में बहने वाली नदी मारकण्डा प्राचीन काल की सरस्वती नदी है। यह तथ्य महाभारत ग्रंथ का विस्तष्त अध्ययन करने पर सिद्ध हो जाता है। इस प्रसंग का उल्लेख पौराणिक साहित्य में भी मिलता है। ये प्राचीन ग्रन्थ स्पष्ट रूप से वर्णन करते हैं कि ऋगवेद में वर्णित प्लक्ष सरस्वती नदी महाभारत काल में काफी क्षीण हो गई थी। यह धारा पुनः वष्क्ष के मूल से प्रकट हुई थी। पौराणिक साहित्य का अध्ययन करने पर प्लक्षप्रस्रवण का भी वर्णन प्राप्त होता है। प्लक्षप्रस्रवण आज कल जिला सिरमौर में काला आम्ब नाम स्थान पर विद्यमान है। इसी वन में प्लक्ष के वष्क्ष अधिकता से मिलते है। ऋषि मारकन्डेय जी का आश्रम भी इसी वन में स्थित है। पुराणों के अनुसार सरस्वती नदी जो कि प्राचीन समय में विषाल काय समुद्र के समान थी, महाभारत काल में भयंकर सूखा पड़ने के कारण विलुप्त होने को थी। इस धारा का मुख्य भाग पाताल लोक में चला गया था। षेष अंष पृथ्वी पर बचा रहा। वैदिक साहित्य में उल्लेखों के अनुसार यह धारा बिखर कर अन्य सात धाराओं में विभक्त हो गई थी। वह भाग जो धरातल में चला गया था, वह भाग भारत वर्ष के उत्तर पष्चिमी भाग में पष्थ्वी की सतह से स्रोतांे के रूप में जगह-जगह प्रस्फुटित हुआ। सदियों तक मानसून की वर्षा न होने के कारण यहाँ की भूमि का जल स्तर एव नदी की धारा का प्रवाह काफी घट गया था। यहाँ पर रहने वाले निवासी जल के अभाव में इधर-उधर भटकने लगे। कुछ लोग अन्य स्थानों पर जाकर बस गये। अफगानों के लगातार हमलों के कारण अन्य प्रजातियाँ एवं जनसंख्या विलुप्त हो गई। जो लोग बच गये उनके मानस पटल पर इस क्षेत्र की स्मष्ति पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी छाप छोड़ती गई। इस तरह लोगों की स्मष्ति भी क्षीण होती गई। इसी स्मष्ति को रेषियल मेमोरी भी कहा जाता है। इसी स्मष्ति के कारण ऐतिहासिक घटनाओं का विवरण समय के साथ आगे बढ़ता रहा।
श्री मारकण्डेय महान तपस्वी ऋषि थे। इनके ही नाम पर एक महापुराण का नाम मारकण्डेय पुराण है। यह सम्मान अन्य किसी ऋषि को प्राप्त नहीं हैं। सरस्वती नदी प्लक्ष के मूल से ऋषि मारकण्डेय जी के आश्रम से प्रस्फुटित होकर संस्कष्त एवं परिष्कष्त हो गई थी। स्थानीय जनमानस इस धारा को मारकण्डेय नदी के नाम से जानने लगे और इस नदी को बहुत ही ज्यादा सम्मान देते है। इस नदी के तट पर बहुत से मन्दिरों का निर्माण किया गया। रविवार के दिन यहाँ के स्थानीय निवासी इस
पवित्र स्थान पर ढोल-नगाडे़ बजाकर मारकण्डेय नदी की पूजा अर्चना करते हैं। वर्ष के अधिकतर समय में इस धारा में जल का अभाव रहता है; परन्तु इससे इस नदी की महत्ता कम नहीं होती है। वर्ष भर यहाँ पर पूजा चलती रहती है। मानसून के समय यह सूखी सी जल धारा समुद्र के समान विकराल रूप धारण करती है। इस समय भूमि में जल स्तर बढ़ जाता है। सभी स्थानों पर फसलें एवं वष्क्ष लगा दिये जाते हैं। मानसून के जल से यहाँ की भूमि में हिमालय पर्वत की श्रेणियों से बहकर मष्दा
आती रहती है। यहीं मष्दा यहाँ की भूमि को उपजाऊ बनाती है। यह जल धारा यहाँ के निवासियों के लिए जीवन दायिनी है। इसके जल से ही यहाँ पर भरपूर फसले पैदा होती है।
इसी क्षेत्र में अमरी, ओमला, बेगना एवं टागंरी नाम की बरसाती नदियाँ भी बहती है, परन्तु अन्य किसी जल धारा को यह सम्मान प्राप्त नहीं है। किसी अन्य नदी की पूजा इस तरह से नहीं की जाती है। यह तथ्य भी मारकन्डेय नदी की महानता सिद्ध करता है। पौराणिक साहित्य में सरस्वती नदी की एक और षाखा का वर्णन भी प्राप्त होता है। इस धारा को साँभ्रमती के नाम से उल्लेखित किया गया है। वर्तमान समय की साबरमती नदी जो गुजरात प्रान्त में बहती है, सरस्वती नद की ही एक षाखा है।
गुजरात प्रदेष में सारस्वत कुलीन ब्राहमणों का आवास है। सरस्वती नदी से सम्बन्धित होने के कारण ही इस समुदाय का नाम सारस्वत है। सावरमती नदी का यह क्षेत्र लाल पीली मिट्टी का बना हुआ है। इस क्षेत्र की मृदा (भूमि) का रंग लाल होने का प्रसंग भी स्कन्ध पुराण के नागर खण्ड में मिलता है। प्राचीन काल में ऋषि वषिष्ठ एवं ऋषि विष्वामित्र के आश्रम सरस्वती के किनारे पर ही थे। किसी प्रसंग को लेकर दोनों ऋषियों में षत्रुता हो गई। ऋषि विष्वामित्र बहुत ही क्रोधी स्वभाव वाले
थे। ऋषि विष्वामित्र ने सरस्वती नदी से आग्रह किया कि वह ऋषि वषिष्ठ के आश्रम को मुनि के साथ ही बहा कर ऋषि विष्वामित्र के निकट ले आये। मैं ऋषि वषिष्ठ से युद्ध करूँगा और वषिष्ठ ऋषि को मार दूँगा। सरस्वती ने ऐसा करने को मना कर दिया। इस पर ऋषि विष्वामित्र बहुत क्रोधित हुए। उन्होंने श्राप देकर सरस्वती जल को रक्त रजित दिया। इस प्रकार सरस्वती की इस साबरमती धारा में रक्त रजित जल बहने लगा। विभिन्न स्थानों से राक्षस वहाँ आकर प्रवास करने लगे।
समयानुसार राक्षस इस क्षेत्र के निवासी हो गये। यह स्थान अब राक्षसों का आवास हो गया था। इससे सरस्वती को बहुत दुख हुआ। सरस्वती ने ऋषि वषिष्ठ से प्रार्थना की और श्राप मुक्त करने का आग्रह किया। ऋषि वषिष्ठ ने यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। वह प्लक्ष वृक्ष के पास गये। वहाँ से प्लक्ष वृक्ष के मूल से सरस्वती जल स्त्रोत को प्रस्फुटित कर जल की निर्मल, स्वच्छ धारा को जन्म दिया। इस जल धारा से रक्त रजित जल स्वच्छ एवं संस्कृत हो गया। इस तरह यह क्षेत्र राक्षस
विहीन हुआ। परन्तु आज भी इस सावरमती क्षेत्र की भूमि का रंग लाल पीला है।
ततः प्रभृति संप्राप्तं कथं तोयं प्रकीर्तय। सरस्वत्या महाभाग सर्वं विस्तरतो यद।।2।। उस दिन से लेकर कहो कि पुनः सरस्वती के प्रवाह में जल कैसे हुआ। हे महाभाग! यह सब विस्तार से कहो। सूत उवाच, ‘‘बहुकालं प्रवाहः स सरस्वत्या द्विजोत्तमाः। महान महान रक्त मयो जातो भूतराक्षससेवितः।।3।। कस्यचित्वथ कालस्य वसिष्ठो मुनिसत्तमः। अर्बुदस्थस्तया प्रोक्तो दीनया दुःखयुक्तया।।4।। तवार्थाय मुने षप्ता विष्वामित्रेण कोपतः। रूधिरौधवहा
जाता तपस्विजनवर्जिता।।5।। तस्मात्कुरू प्रसादं मे यथा स्यात्सलिलं पुनः। प्रवाहे मम विपेन्द्र प्रयाति रूधिरं क्षयम्।।6।। त्रैलोक्य- करणे विप्र संक्षये वा स्थितौ हि वा। नाषक्तिर्विद्यते काचित्तव सर्वमुनीष्वर।।7।।’’ सूत जी बोले- हे द्विजोत्तम! वह सरस्वती महानदी का प्रवाह बहुत काल पर्यन्त भूत तथा राक्षसों से सेवित महान् रक्तरूप को प्राप्त हुआ। यहाँ काल संख्या नहीं, कही। इसलिये लिखा है (महाभारते। एवं सरस्वती षप्ता विष्वामित्रेण धीमता। अवहच्छेणितोन्मिश्रं तोयं संवत्सरं तदा।। म0 भा0 ष0
अ0 42, ष्लोक 39। अर्थात् महाभारत में लिखा है, इस प्रकार जब बुद्धिमान विष्वामित्र के द्वारा सरस्वती को षाप दिया गया, तब उसने एक साल भर रक्त मिश्रित जल बहाया।)।।3।। पुनः किसी समय के अनन्तर आबु पर्वत पर विराजमान मुनियों में श्रेष्ठ वसिष्ठ जी से उसने (सरस्वती नदी) दुःखी होकर दीनता से कहा।।4।। हे मुनि! तुम्हारे निमित्त ही विष्वामित्र ने कुपित होकर षाप दिया। जिससे मैं रक्तसमूह हो बहाने वाली हुई; तथा तपस्विजनों ने भी त्याग दिया।।5।। हे विप्रेन्द्र (ब्राह्मणों में श्रेष्ठ) जिस प्रकार पुनः जल हो जाये तथा मेरे प्रवाह में रक्त नाष को प्राप्त हो। ऐसी कृपा मुझ पर करो।।6।। हे विप्र! हे
मुनिष्वर! तीनों लोकों की रचना संहार तथा पालन करने की सब षक्ति तुम्हारे में विद्यमान है। ऐसी कोई नहीं जो न हो।।7।।
वसिष्ठ उवाच, ‘‘तथा भद्रे करिष्यामि यथा स्यात् सलिलं पुनः। प्रवाहे तव निर्याति सर्वं रक्तं परिक्षयम्।।8।।’’ वसिष्ठ जी बोले-
हे कल्याणी! मैं वैसे ही करूँगा जैसे पुनः जल हो। तुम्हारे प्रवाह में सब रक्त परम नाष हो जाये।। ‘‘एवमुक्त्वा स विप्रषिपरवर्तीय
धरातले। गतः प्लक्षतरूं यस्मादवतीर्णा सरस्वती।।9।।’’ ऐसा कहकर वह ब्रह्म ऋषि भूमि तल पर उतरकर उस प्लक्ष वृक्ष के पास
गये।।
‘‘समाधिं संधाय निविष्टो धरणीतले। संभ्रवं परमं गत्वा विष्वामित्रस्य चोपरि।।10।। वारूणेन तु मंत्रेण वीक्षयन् वसुधातलम्।
ततो निर्भिद्य वसुधां भूरितोयं विनिर्गतम्।।11।। रन्ध्रद्वयेन विप्रेन्द्रा लोचनाभ्यां निरीक्षणात्। एकस्य सलिलं क्षिप्रं यत्र जाता
सरस्वती।।12।। प्लक्षमूले ततस्तस्य वेगेनापहृतं बलात्। तद्रक्तं तेन संपूर्णे ततस्तेन महानदी।।13।। द्वितीयस्तु प्रवाहो यः संभ्रमात्तस्य निर्गतः। सा च सांभूमती नाम नदी जाता धरातले।।14।। एवं प्रकृतिमापन्ना भूय एव सरस्वती। यत्पृष्ठोऽस्मि महाभागाः सरस्वत्याः
कृते द्विजाः।।15।। एतत्सारस्वतं ना व्याख्यानमतिबुद्धिदम्। यः पठेच्छृणुयाद्वापि मतिस्तस्य विवर्धते। सरस्वत्याः प्रसादेन सत्यमेतन्म- योदितम्।।16।।’’ जिससे सरस्वती नदी का अवतार हुआ। वहाँ समाधि लगाकर विष्वामित्र के ऊपर परम संवेग (क्रोध करके)
पृथ्वी के ऊपर बैठ गये।।10।। पुनः वरूणदेवता संबधि मंत्र के उच्चारण सहिततल को देखने लगे। उससे भूमि को भेदन कर बहुत जल निकला।।11।। हे विप्रेन्द्रों! जैसे देखने काल में एक ही अन्तःकरण की वृत्ति दोनों नेत्रों गोलकों से दो रूप धार कर निकलती है। ऐसे ही यह प्लक्षमूल से प्रकट हुई सरस्वती वहाँ षीघ्र एक का ही जल दोनों छिद्रों के द्वारा निकला। उसके पष्चात् उसका वह रक्त उस दूसरी धारा के द्वारा सम्पूर्ण बलपूर्वक अपहरण कर लिया वा वहा दिया। उसके द्वारा महानदी षुद्ध हो
गई।।13।। पुनः जो दूसरा प्रवाह उसके संभ्रम (संवेग या भयपूर्वक त्वरा) से निकला। वह पृथिवी पर सांभ्रमती नदी नाम से विख्यात हुई।।14।। इस प्रकार वह सरस्वती नदी पुनः अपने स्वभाव (षुद्धरूप) को प्राप्त हुई। हे महाभाग द्विजों! यही सरस्वती के निमित्त करके आप ने मुझ को पूछा है। यह सारस्वत नामक व्याख्यान अति बुद्धि देने वाला है।।15।। जो इसको श्रद्धा से पाठ करे वा सुने सरस्वती के प्रसाद से उसकी बुद्धि बढ़ जाती है। यह मैने सत्य कहा है।।16।।
‘‘इति श्रीस्कान्दे महापुराणे एकाषीतिसाहस्त्रयां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे श्रीहाटकेष्वरक्षेत्रमाहात्म्ये सरस्वत्युपाख्याने सरस्वतीषाप- मोचनसांभ्रमत्युत्पत्तिवृत्तांतवर्णनं नाम त्रिसप्तत्युत्तरषतत्मोऽध्यायः’’ अर्थात् इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण वा इक्यासी सहस्त्र संहिता के छटे नागर खण्ड के अन्तर्गत श्रीहाटकेष्वर क्षेत्र माहात्म्य के सरस्वती उपाख्यान में सरस्वती षाप मोचन और सांभ्रमती की
उत्पत्ति वृतांत वर्णन नामक एक सौ त्यहत्तरवां अध्याय समाप्त हुआ।
प्लक्ष वष्क्ष भी सरस्वती नदी से सम्बन्धित है। यह संस्कष्त भाषा का षब्द है। संस्कष्त-हिन्दी षब्दकोष में प्लक्ष षब्द के दो अर्थ दिये गये है। एक अर्थ गूलर एवं दूसरा सरस्वती नदी का उद्गम स्थल है। महर्षि मारकण्डेय के आश्रम में भी प्लक्ष प्रजाति का विषाल वष्क्ष है। इसी विषाल वष्क्ष के मूल से सरस्वती धारा का स्रोत फूट रहा है। यह तथ्य हम पहले भी लिख चुके है। प्लक्ष प्रजाति के फल इनके तनों एवं षाखाओं से ही निकलते हैं। इस वष्क्षों पर फूल आदि नहीं लगते हैं। यह इस प्रजाति की विषेषता है। श्री महर्षि मारकण्डेय जी के आश्रम के निकट ऋषि परषुराम की माता रेणुका का आश्रम आज भी है। यहाँ भी गूलर के वष्क्ष बहुतायत से मिलते हैं। एक ऐसे प्लक्ष वष्क्ष के मूल से जल स्रोत फूट रहा है। इससे ज्ञात होता है कि हिमाचल प्रदेष के नाहन तहसील का यह क्षेत्र ही षास्त्रों में वर्णित प्लक्षप्रस्रवण है
हरियाणा एवं राजस्थान के प्राचीन सरोवरों एवं बावली के जल का रेडियोधर्मिता एवं अन्य वैज्ञानिक विधियों से विष्लेषण किया गया है। इस विष्लेषण से पता लगता है कि यह संचित जल प्राचीन अनादि काल का है। भारत के इस भू-भाग में भयंकर सूखा पड़ने से कोई थोड़ा बहुत प्राचीन जल स्रोत या बावली बच रही होगी, जिसका कि यह जल है जो कि अति प्राचीन है। हमारे देष में यहाँ की नदियों का नामकरण करने की परम्परा विषिष्टता लिये हुए हैं। नदियों का नामकरण महापुरूष, देवी
देवताओं, ऋषि मुनियों एवं भौगोलिक स्थान से लिया गया है। उदाहरण के लिये, राजा भागीरथ गंगा जी को पष्थ्वी पर लेकर आये थे। अतः इसी नदी को भागीरथी भी कहा गया है। यमुना नदी को यमराज देव की बहन के रूप में जाना जाता है। यमुना का नाम कालिन्दी भी है। यह नदी कालिन्दी पर्वत के समीप से बहती है। एक अन्य नदी जो कि चित्रकूट की पहाड़ियों से निकलकर धीरे-धीरे (मन्द-मन्द) गति से बहती है, इसे मन्दाकिनी कहते है। हिमालय पर्वत से निकलने वाली मंदाकिनी अन्य
है। चित्रकूट की पहाड़ियाँ बाँदा जिले में हैं। यही पर ऋषि अत्रि एवं अनुसूया का आश्रम है। इसी चित्रकूट वन में श्री रामचन्द्र जी ने वनवास किया था।
कोई भी बड़ी नदी छोटी-छोटी धाराओं से मिलकर बनती है। गंगा जी की भी तीन धारायें हैं। भगीरथी नदी गोमुख से प्रकट होती है। देवप्रयाग में भगीरथी, अलकनन्दा एवं मन्दाकिनी धारा ये मिलकर गंगा जी को अपना स्वरूप प्रदान करती है।
ऋषि वेद व्यास ने विपासा नदी के तट पर घोर तप किया था। अतः इस नदी का नाम व्यास प्रचलित हो गया। बदोदरा जिले में बहने वाली नदी विष्वामित्री कहलाती है। इसका ऋषि विष्वामित्र से अवष्य ही सम्बन्ध रहा होगा।
द्वापर युग में महाभारत के काल में ही सरस्वती नदी मंे जल की न्यूनता होने के कारण इसका बहाव क्षीण हो गया था। ऋषि मारकण्डेय जी के अथक प्रयास एवं तप के कारण ही इस नदी का पुनर्जन्म इनके पवित्र आश्रम में प्लक्ष वष्क्ष के मूल से हुआ। इसी कारण इस नदी का नाम मारकण्डेय नदी पड़ा। ऋषि मारकण्डेय महान तपस्वी थे। वष्हदनारदीय पुराण में भी इस धारा के पुनर्जन्म का वर्णन मिलता हैं। जैसा कि पहले भी वर्णन किया गया है, सरस्वती नदी की बहुत सी छोटी-2 धारायें षिवालिक पर्वत से निकलती है। इनका प्रवाह जिला यमुना नगर, अम्बाला एवं कुरूक्षेत्र में है। महाभारत काव्य एवं अन्य पुराणों में सरस्वती नदी के उद्गम के बारे में काफी कुछ वर्णित पाया जाता है। प्राचीन कालीन प्लक्ष वष्क्ष मारकण्डेय आश्रम में आज भी विद्यमान हैं इसका विकराल रूप इस बात का प्रमाण है कि यह अति प्राचीन है। इसकी आयु का अनुमान लगाना कठिन है। प्लक्ष (वट) प्रजाति के वष्क्ष काफी समय तक जीवित रह जाते हैं। इन वष्क्षों से हवाई जड़ें निकलकर हवा में नीचे की ओर लटकी रहती है। कुछ समय पष्चात यह जड़े भूमि में समा जाती है और मूल वष्क्ष को पोषण प्रदान करती है। कुछ वर्षों के बाद यही जड़े तनों का रूप धारण कर लेती है और मुख्य वष्क्ष को सहारा देती है। कालान्तर में मूल वष्क्ष क्षीण हो जाता है। यही जड़ तना बन जाती है। यह प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है और यह वष्क्ष अनन्त समय तक खड़ा रह सकता है। पाठकों से अनुरोध है कि पुराणों में वर्णित इस कथन की पुष्टि ऋषि मारकण्डेय जी के आश्रम में स्वयं पधार कर करें। यह आश्रम कालाअम्ब से पौंटा साहिब जाने वाले मार्ग पर जोगी वन में स्थित है। इसी के समीप प्राचीन आदि बद्री का प्राचीन मन्दिर भी स्थित है। यह स्थान षिवालिक पर्वत माला की भूमि पर है। इसी स्थल के पास हरियाणा सरकार द्वारा सरस्वती नदी का उद्गम स्थल भी चिन्हित किया गया है। इससे थोड़ी दूर पर व्यासपुर (बिलासपुर) कस्बा है। प्राचीन काल में इसी स्थान पर ऋषि वेद व्यास ने पुराणों की रचना की थी। यहां पर एक प्राचीन जलकुण्ड भी है जिसे व्यास कुण्ड कहते है। यह स्थान महाभारत काल का है। इसी स्थान पर महाभारत की समाप्ति पर राजा दुर्योधन आकर छिप गये थे। महाभारत काव्य में इस स्थान को व्यास हष्द भी कहा गया है।
‘‘तत्र देवी ददर्षाथ पुण्यां पापविमोचनीम्। प्लक्षजां ब्रह्यणः पुत्रीं हरिजिह्ना सरस्वतीम।।13।। सुदर्षनस्य जननीं हृदं कष्त्वा सुविस्तष्तम। तस्यास्तज्जलमासाद्य स्नात्वा प्रीतोऽभवन्नष्पः।।14।।’’ उस वन में प्रवेष करने के अनन्तर वहां पर पापों को नाष करने वाली भगवान हरि की जिह्ना ब्रह्मा जी की पुत्री प्लक्ष (पाकर) से उत्पन्न होने वाली पवित्र सरस्वती देवी को देखा।।13।। जो सुदर्षन की माता है। उसको देखा। पुनः षोभनविस्तार युक्त सरोवर का निर्माण करके और सरस्वती का जल उसमें लाकर तथा स्नान करके राजा प्रसन्नता को प्राप्त हुआ।।14।। (इति श्रीवामनपुराणे सरोमाहात्म्ये द्वाविंषोऽध्यायः।।22।।)
स्कंद पुराण में बड़वानल नामक अग्नि को देवताओं के अनुरोध पर भगवान् विष्णु ने समुंद्र तक ले जाने लिए सरस्वती को यान (सवारी) रूप
बनाया।
‘‘स्वतेजसा द्योतयन्ती सर्वमामासयज्जत्। ततो विसष्ज्य तां देवी नदी भूत्वा सरस्वती।।40।। हिमवन्तं गिरि प्राप्य प्लक्षातत्र विनिर्गता। अवतीर्णा
धरा पष्ष्ठे मत्स्यकच्छपसकुला।।41।।’’ अपने तेज से प्रकाषित होती हुई उसने संपूर्ण जगत को प्रकाषित कर दिया। उसके अनन्तर उस गंगा
देवी को त्याग कर स्वयं नदी का रूप धारण कर सरस्वती हिमालय पर्वत पर पहंुच कर वहां प्लक्ष (पाकर) से प्रकट हुई।। 40-41।। ( इति
स्कन्द म0 पु0 में0 प्रभास खं.( प्र0 क्षे0 मा0 1) 33 में अध्या0 निरूपतम्।।)
वष्हन्नारदीय पुराण में; ‘‘रामतीर्थ ततः ख्यातं संजातं पापनाषनम्। मार्कण्डेयेन मुनिना संतप्तं परमं तपः।।7।। यत्र तत्र समायाता प्लक्ष जाता सरस्वती, सा सभाज्य स्तुता तेन मुनिना धार्मिकेण है। सरः सेनिहितं प्लाव्य पष्चिमां प्रस्थिता दिषम्। कुरूणा तु ततः कष्ष्टं यावत्क्षेत्रं समन्ततः।।’’ यहां पर मार्कण्डेय मुनि ने परम तप किया था। वहाँ पर प्लक्ष से उत्पन्न होने वाली सरस्वती आई अर्थात प्रकट हुई। उस धार्मिक मुनि के द्वारा स्तुति (प्रषंसित) वह भी मुनि का सम्मान करके पुनः संनिहित सर को प्लावन (पूर्ण भर) करके पष्चिम दिषा को प्रस्थान किया (चली गयी) तब से यावत्परिमाण (जितने माप) में क्षेत्र था उसको चारों ओर से कुरू ने कर्षण किया।। (इति श्रबष्हिन्नारदीयपुराणे उतरभागे कुरूक्षेत्रमाहात्म्ये क्षेत्रप्रमाणादिनिरूपणं)
पद्म पुराण में; ‘‘अधस्तात्प्लक्षवष्क्षस्य अवरोप्य च तां तनुम्। अवतीर्णा महाभागा देवानां पष्यतां तदा।।189।।’’ उस काल में महाभागा सरस्वती
देवताओं के देखते हुए ही अपने देव षरीर को भूमि में घुसा कर पुनः पाकर वृक्ष के नीचे से प्रकट हुई। (इति श्री पाद्मपुराणे प्रथमे सष्ष्टिखंडे
नन्दा प्राची माहात्म्येऽटादषोऽध्यायः।।)
पद्म पुराण व स्कंद पुराण में उस प्लक्ष वष्क्ष के पावन स्वरूप की भी व्याख्या मिलती है। ‘‘ततो विसष्ज्य तान् देवान्नदीभूता सरस्वती।।188।।
अधस्ताप्लक्षवष्क्षस्य अवरोप्य च तां तनुम्। अवतीर्णा महाभागा देवानां पष्यतां तदा।।189।। विष्णुरूपस्तरुः सोऽत्र सर्वेदेवैस्तु वन्दितः। संसेव्यष्च
द्विजैर्नित्यं फलहेतोर्महोदयः।।190।। अनेकषाखाविततश्रतुर्मुख इवापरः।।191।। नदी सरस्वती पुण्या सुलभा जगति स्थिता। दुर्लभा सा कुरुक्षेत्रे
प्रभासे पुष्करे तथा।।236।।
उसके अनन्तर उन देवताओं को त्याग कर सरस्वती देवी नदी भाव को प्राप्त हो गई।।188।।
उस काल में महाभागा सरस्वती देवताओं के देखते हुए ही अपने देव षरीर को भूमि में घुसा कर पुनः पाकर वृक्ष के नीचे से प्रकट हुई। इसी स्थान पर साक्षात् विष्णु रूप वह वष्क्ष सब देवताओं द्वारा वन्दित (पूजित) तथा द्विजों के द्वारा नित्य ही सेवा करने योग्य और फल के कारण
अति उन्नति पर है या प्रभावषाली है ।।191।।
अनेक षाखाओं के द्वारा फैला हुआ चतुर्मुख दूसरे ब्रह्मा जी के समान है। पवित्र सरस्वती नदी जगत् में स्थित होने से जैसे सुलभ है। वैसे वह कुरूक्षेत्र प्रभास क्षेत्र तथा पुष्कर में दुर्लभ भी है ।।236।।
वष्क्ष के विस्तष्त मुख्य तने व अन्य सहायक तनों को ध्यान से देखने से चार खंड प्रतीत होते हैं। मुख्य विषाल तने अधिकतर खोखले हैं व छोटे बालक खेल खेल में नीचे से प्रवेष कर ऊपर निकल आते हैं। ऐसा ही वर्णन स्कंद पुराण के यह ष्लोक करते है।
‘‘उद्भूता सा तदा देवी अधस्ताद्वष्क्षमूलतः। तत्कोटरकुटी कोटीप्रविष्टानां द्विजन्तनाम्।।22।। श्रूयन्ते वेदनिर्घोषा सरसारक्तचे- तसाम्। विष्णुरास्ते तत्र देवो देवानां प्रवरो गुरूः।।23।। तस्मात्स्थानात्ततो देवी प्रतीच्याभिमुखं ययौ।।24।।’’ उस वष्क्ष के कोटर (मध्य में खोखला भाग) रूप
कुटी में प्रविष्ट हुए तथा प्रेम से रंगा हुआ चित्त जिनका ऐसे करोड़ संख्यक द्विजों की वेदध्वनियां सुनी जाती है। वहीं पर देवताओं के मुख्य षासक भगवान विष्णु देव विराजते हैं अर्थात् उनका स्थान है।।23।। उस स्थान से वह देवी पष्चिम दिषा को मुख करके
चली गई। (इति श्रीस्कान्दे महापुराणे एकाषीतिसाहस्त्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखंड श्रीहाटकेष्वरक्षेत्रमाहात्म्ये सरस्वत्युपाख्याने सरस्वती- षापमोचनसांभªमत्युत्पतिक्ष्तांतवर्णनं नाम त्रिसप्तत्युत्तरषत्तमोऽध्यायः।।173।।)
महाभारत ग्रंथ में महामुनी वेद व्यास ने युद्ध के समय बलराम जी की सरस्वती के तटवर्ती तीर्थो की यात्रा का उल्लेख किया है। यात्रा सरस्वती के समुद्र संगम से प्रारम्भ करके, देव नदी के उदगम स्थान तक की वर्णित है। यह स्पष्ट वर्णन किया गया है कि षिवालिक पहाड़ियों में
पाखड़ वष्क्ष की जड़ों से उत्पन्न सरस्वती के जल में स्नान करने के उपरान्त, बलराम जी षीघ्र ही यमुना नदी पर पहुँच गये।
‘‘सौगन्धिकवनं राजन् ततो गच्छेत् मानवः।।4।।’’ हे राजन! वहां से मानव सौगन्धक वन को जाए।।4।। ‘‘तद्वनं प्रविषन्नेव सर्वपापैः प्रमुच्यते। ततष्चापि
सरिच्छ्रेष्ठा नदीनामुत्तमा नदी।।6।। प्लक्षाद्देवी स्रुता राजन् महापुण्या सरस्वती। तत्राभिषेकं कुर्वीत वल्मीकान्निःसष्ते जले।।7।।’’
उस वन में प्रवेष होते ही सब पापों से मुक्त हो जाता है। हे राजन ! उस वन में श्रेष्ठ सरिता और सब नदियों में उत्तम तथा महापवित्र सरस्वती देवी प्लक्ष से टपकती है वहां पर वल्मीक (वरमी) से निकलने वाले जल में स्नान करे।।6-7।। (इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि
पुलस्तीर्थयात्रायां चतुरषीतितमोध्यायः।।84।। (एवं श्री पा0 पु0 स्व0 खं0 अ0 2, ष्लोक 6,7)
The narrative continues describing the visit of Balarama to the region.
‘‘श्रुत्वा ऋषीणां वचनमाश्रम तं जगाम ह। ऋषींस्तानभिवाद्याथ पाष्र्वे हिमवतोऽच्युतः।।1।।’’ ‘‘संध्या-कार्याणि सर्वाणि निर्वत्र्यारू- रूहऽचलम्।
नातिदूरं ततो गत्वा नगं तालध्वजो बली।।10।। पुण्यं तीर्थवरं दष्ष्ट्वा विस्मयं परमं गतः। प्रभवं च सरस्वत्या प्लक्षप्रस्रवणं बलः।।11।।
संप्राप्तः कारपवनं प्रवरं तीर्थमुत्तमम्। हलायुधस्तत्र चापि दत्वा दानं महाबलः।।12।। आप्लुतः सलिले पुण्ये सुषीते विमले षुचै। संतर्पयामास
पितृन् देवांष्च रणदुर्मदः।।13।। तत्रोष्यैकां तु रजनीं यतिभिब्र्राह्मणैः सह। मित्रावरूणयो पुण्यं जगामाश्रममच्युतः।।14।। इन्द्रोऽग्निरर्यमा चैव यत्र
प्राक् प्रीतिमाप्नुवन्। तं देषं कारपवनाद् यमुनायां जगाम ह।।15।।
ऋषियों के वचन को सुनकर वह अच्युत हलधर उस आश्रम में गए। जो हिमालय के पाष्र्व भाग (वगल) में विद्यमान था। वहां ऋषियों को अभिवादन (प्रणाम) करके सब सन्ध्या कार्यो को निपटाकर तत्पष्चात् पर्वत पर चढ़े। वह ताल वष्क्ष के चन्हि युक्त ध्वजा वाले बलवान राम (पर्वत पर अतिदूर न जाकर थोड़ी दूर) वहां से पवित्र श्रेष्ठ तीर्थ
को देखकर परम विस्मय (आष्चर्य) को प्राप्त हुए। पुनः जो सरस्वती का उद्गम स्थान तीर्थो में उत्तम तथा कारपवन मुख्य प्लक्ष प्रस्रवण नाम तीर्थ को बलराम संप्राप्त हुए। अर्थात् वहां पहंुच गए। वहाँ पर भी महाबलवान हल षस्त्र धारी राम ने सरस्वती के पवित्र सुषीत षुद्ध स्वच्छ जल में स्नान किये हुये दान देकर रणदुर्मद बलराम ने देवता
और पितरों को तर्पण किया।13। अरू यति (सन्यासी) तथा ब्राह्मणों के सहित अच्युत बलराम एक रात्रि वहां पर निवास करके पुनः मित्र अरू वरूण दोनों ऋषियों के पवित्र आश्रम को चले गये।14। यहाँ पर पूर्व (पहले) इन्द्र, अग्नि, अरू अर्यमा देवता प्रसन्नता को प्राप्त हो
चुके थे। कारपवन से यमुना पट्टी में स्थित उस देष (स्थान) को गये।15।। (इति श्री -महाभारते षल्यपर्वणि गदापर्व. बलदेवतीर्थयात्रायां सारस्वतोपाख्याने संक्षिप्तष्चतुपंचाषत्तमोऽध्यायः) उपर कथित क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति आज भी ऐसी है कि प्लक्षप्रस्रवण और यमुना के बीच का फासला कुछ 15-16 किलोमीटर का ही है। बलराम जी की तीर्थ यात्रा में सूचित तीर्थ स्थान आज भी विराजमान है। तो फिर इस कथन में कोई संषय नहीं रह जाता कि मारकण्डा जी के आश्रम में स्थित पाखड़ से उत्पन्न जलधारा ही देव नदी सरस्वती का उदगम स्थान है। 2010 में प्रकाषित खूबसूरत पुस्तक में माइकेल डेनीनो ने गहन खोज करके यह सिद्ध कर दिया है कि पूर्व काल में सरस्वती नदी उत्तर-पष्चिम भारत में अवष्य बहती थी। नासा (छ।ै।) ने भी उपग्रहों द्वारा प्राप्त जानकारी से इस बात की पुष्टि की है। डेनीनो ने मारकण्डा का ही सरस्वती का प्रारंभिक भाग होने की तीव्र सम्भावना जताई है। श्री ओ.पी. भारद्वाज ने अपने पुस्तक ”वैदिक हड़प्पा सभ्यता“ में प्लक्षप्रस्रवण का नाहन क्षेत्र में होने का तथ्य पेष किया है। होषियारपुर से साधु सेवा मुंषी राम सूद ट्रस्ट द्वारा प्रकाषित पुस्तिका ”श्री सरस्वती महानदी निर्णय“ में परमहंस सरस्वती स्वामी जी ने मारकण्डा का ही सरस्वती होने का विस्तार से उल्लेख किया है।
MBBS, MS
General & Laparoscopic Surgeon
Professor of Surgery, M.M. Medical College, Mullana
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